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अर्गलास्तोत्रम्, Argala Stotram - In sanskrit

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  Argala Stotram अर्गलास्तोत्रम्  अर्गलास्तोत्रम् -   ॐ  जयन्ती मङ्गला काली Argala Stotram - Om Jayanti Mangala Kali ॐ अस्य श्रीअर्गलस्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषि: अनुष्टुप् छन्द, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतीपाठाङ्गात्वेन जापे विनियोगः || ॐ नमः चण्डिकायै ||  मार्कण्डेय उवाच  ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली  कपालिनी |   दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते  ||  १  || Om Jayanti Mangala Kali Bhadrakali Kapalini| Durga  Kshmaa   Shiva Dhaatri Swahaa Svadha Namostu Te || 1|| जय त्वम् देवी चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि | जय सर्वगते देवी कालरात्रि नमोस्तुते || 2  || Jai Tvam Devi Chamunde Jai Bhutartihaarini | Jai Sarwgate Devi Kaalaraatri Namostu Te ||2||   मधुकैटभ विद्राविविधातृवरदे  नमः |    रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ||३|| Madhu-Kaitabh-विड्रा Vividhaa Trivarde Namah | Rupam Dehi Jayam Dehi Yasho Dehi Dviso Jahi ||3|| महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां  सुखदे नमः...

वीरों का कैसा हो वसंत? सुभद्राकुमारी चौहान

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वीरों का कैसा हो वसंत सुभद्राकुमारी चौहान  सुभद्राकुमारी चौहान वीरों का कैसा हो वसंत? आ रही हिमाचल से पुकार, है उदधि गरजता बार-बार, प्राची, पश्चिम, भू, नभ अपार, सब पूछ रहे हैं दिग्-दिगंत, वीरों का कैसा हो वसंत? फूली सरसों ने दिया रंग, मधु लेकर आ पहुँचा अनंग, वधु-वसुधा पुलकित अंग-अंग, हैं वीर वेश में किंतु कंत, वीरों का कैसा हो वसंत? भर रही कोकिला इधर तान, मारू बाजे पर उधर गान, है रंग और रण का विधान, मिलने आये हैं आदि-अंत, वीरों का कैसा हो वसंत? गलबाँहें हों, या हो कृपाण, चल-चितवन हो, या धनुष-बाण, हो रस-विलास या दलित-त्राण, अब यही समस्या है दुरंत, वीरों का कैसा हो वसंत? कह दे अतीत अब मौन त्याग, लंके, तुझमें क्यों लगी आग? ऐ कुरुक्षेत्र! अब जाग, जाग, बतला अपने अनुभव अनंत, वीरों का कैसा हो वसंत? हल्दी-घाटी के शिला-खंड, ऐ दुर्ग! सिंह-गढ़ के प्रचंड, राणा-ताना का कर घमंड, दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलंत, वीरों का कैसा हो वसंत? भूषण अथवा कवि चंद नहीं, बिजली भर दे वह छंद नहीं, है क़लम बँधी, स्वच्छंद नहीं, फिर हमें बतावे कौन? हंत! वीरों का कैसा हो वसंत?

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के, शिवमंगल सिंह सुमन

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   हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के   कवि :-  शिवमंगल सिंह सुमन  हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाएँगे, कनक-तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाऍंगे।  शिवमंगल सिंह सुमन  हम बहता जल पीनेवाले मर जाएँगे भूखे-प्‍यासे, कहीं भली है कटुक निबोरी कनक-कटोरी की मैदा से, स्‍वर्ण-श्रृंखला के बंधन में अपनी गति, उड़ान सब भूले, बस सपनों में देख रहे हैं तरु की फुनगी पर के झूले। ऐसे थे अरमान कि उड़ते नील नभ की सीमा पाने, लाल किरण-सी चोंचखोल चुगते तारक-अनार के दाने। होती सीमाहीन क्षितिज से इन पंखों की होड़ा-होड़ी, या तो क्षितिज मिलन बन जाता या तनती साँसों की डोरी। नीड़ न दो, चाहे टहनी का आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो, लेकिन पंख दिए हैं, तो आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालो।